जीवन श्रृंगार
जीवन की वीथियों में, समय का परिपाक,
जरायु का क्रम, जैसे सरित का प्रवाह।
यौवन का चपल नृत्य, अब शिथिलित हो चला,
शरीर का अभिमान, कांति से विमुख है चला।
मस्तक पर झुर्रियों की रेखाचित्र गाथा,
हर रेखा में छिपा, अनुभव का एक अध्याय।
केशों में श्वेत वर्ण की छटा है बिखरी,
समय का अटल चिह्न, जीवन की धुरी।
नेत्रों की ज्योति मंद, पर दृष्टि गहरी हुई,
भौतिकता से परे, अंतर्मन ने राह चुनी।
श्रवण अब मौन प्रिय, शब्द अब तुच्छ हैं,
आत्मा की पुकार ही अब सर्वोच्च हैं।
गति हुई विलंबित, पर विचार उत्तुंग,
अंग शिथिल, पर मनोबल अद्वितीय और प्रबल।
प्रकृति का यह चक्र, अविराम, अविरोध,
जराजीर्ण तन में भी जीवित है प्रकृति का शोध।
आयु के इस पड़ाव पर, न यश का मोह,
न वासना का बंधन, न सांसारिक विघ्न।
केवल आत्मा का मधुर, शांत अभिसार,
जरायु में भी जीवन का दिव्य श्रृंगार।
समय से भयभीत क्यों, यह तो साथी है,
शरीर क्षीण सही, पर आत्मा अमरथी है।
वृद्धि में भी नव्यता का दर्शन खोजो,
जराजीर्ण में छिपी युगों की कथा सोचो।
Comments
Post a Comment