बरसात का डिब्बा

सुबह का आसमान भारी था, जैसे किसी ने धूसर रंग से उसका चित्र बना दिया हो। बादल नीचे तक झुक आए थे और हवा में एक अजीब सी नमी तैर रही थी। बूंदें लगातार खिड़कियों से टकरा रही थीं, मानो बाहर कोई अदृश्य हाथ उन्हें भीतर बुला रहा हो। पेड़ों की शाखें पानी से बोझिल होकर झुक गई थीं, पत्तियाँ चमकते दर्पण जैसी लग रही थीं। हर ओर पानी ही पानी था, और उस पानी के बीच शहर अपनी प्राचीन देह में स्थिर खड़ा था।


विद्यालय की इमारत उस दिन कुछ और ही प्रतीत हो रही थी। दीवारों पर बहती धारियाँ, छतों से टपकती निरंतर बूँदें, और गलियारों में गूँजती प्रतिध्वनियाँ। वह इमारत किसी साधारण भवन जैसी नहीं थी—वह समय का स्मारक थी। उसकी ऊँचाई ऐसी कि एक साथ पूरी दृष्टि में न समाए। जैसे कोई रहस्य अपने भीतर सँजोए हुए हो, जिसे देखने के लिए केवल आँखें नहीं, हृदय की गहराई भी चाहिए।


रघुवीर, वही अध्यापक, बरसों से इन दीवारों के बीच पढ़ाता आया था। उसका जीवन भी उतना ही स्थिर, उतना ही मौन था जितनी यह इमारत। वह बच्चों को पढ़ाता, पन्ने पलटता, शाम को घर लौटता और चाय की प्याली के साथ अकेले बैठ जाता। उसका जीवन एक रेखा था—सीधी, बिना मोड़ की, बिना सजावट की। लेकिन हर वर्ष बरसात के मौसम में उस रेखा पर धुंध फैल जाती।


उसकी स्मृति के कुछ हिस्से अचानक गायब हो जाते। नाम, चेहरे, घटनाएँ—सब जैसे पानी में घुलकर मिट जाते। कभी लगता कि वह किसी से गहरी बातचीत कर चुका है, पर वह कौन था यह याद न आता। कभी लगता कि किसी ने उसका नाम पुकारा था, पर वह आवाज़ किसकी थी, यह मन से फिसल जाता। रघुवीर इस विचित्र अवस्था को किसी से कह नहीं पाता। वह सोचता—शायद यही उम्र का असर है। पर भीतर कहीं उसे पता था कि यह केवल उम्र नहीं, कुछ और है।


उस दिन वर्षा अपनी पूरी शक्ति से बरस रही थी। बच्चे भागते हुए घर लौट गए थे। विद्यालय के गलियारे खाली थे। दीवारों से रिसती बूंदें और छतों से गिरती धाराएँ एक निरंतर संगीत बना रही थीं। रघुवीर अकेले खड़ा था। न जाने क्यों उसके कदम तहखाने की ओर बढ़ गए।


तहखाना हमेशा ही सीलन और अंधेरे का घर रहा था। वहाँ टूटी मेज़ें, कुर्सियाँ, पुरानी तख्तियाँ और धूल से भरे बक्से पड़े रहते। बल्ब की पीली रोशनी झिलमिलाती रहती, जैसे थकी हुई साँसें ले रही हो। उसी कोने में एक लकड़ी का डिब्बा रखा था। डिब्बा समय की मार से काला पड़ चुका था। किनारों पर कीड़े लगे निशान थे, और ऊपर मोटी धूल की परत।


रघुवीर ने झुककर डिब्बा उठाया। धूल उड़ी और हवा में मिलकर गंध फैला गई। उसने धीरे-धीरे उसे खोला।


अंदर पत्र थे। पीले पड़े, किनारों से फटे, पर अब भी अक्षर स्पष्ट। उनके बीच एक तस्वीर भी रखी थी। तस्वीर पर धब्बे थे, पर चेहरा साफ़ दिख रहा था। एक युवती। आँखों में गहराई और होठों पर हल्की मुस्कान।


रघुवीर की साँस थम गई। वह चेहरा उसे जाना-पहचाना लगा। पर नाम उसकी स्मृति से फिसल गया। उसने काँपते हाथों से पहला पत्र उठाया।


“रघु, तुमने कहा था कि हम एक दिन इन गलियों से दूर चले जाएँगे। पर यह शहर हमें जाने नहीं देगा। यह दीवारें, यह गलियाँ—ये हमें बाँधे रखेंगी।”


दूसरे पत्र में लिखा था—

“तुम क्यों डरते हो? क्या डर लोगों का है या तुम्हारे अपने मन का? मैं समझ नहीं पाती।”


रघुवीर के भीतर बिजली-सी गिरी। शब्द पढ़ते ही वर्षों से दबा हुआ अतीत लौट आया। उसे याद आया कि उसने युवावस्था में किसी को गहराई से चाहा था। उनके सपने थे—नया जीवन बनाने के, दूर जाने के। पर उसने ही सब तोड़ दिया था। कारण—शायद भय, शायद समाज का दबाव, शायद अपनी ही कायरता। उसने उस स्त्री को छोड़ दिया और फिर स्मृति से मिटा दिया।


लेकिन स्मृति मिटती कहाँ है? वह तो कहीं भीतर बैठी रहती है। और जब लौटती है तो पूरा जीवन हिला देती है।


रघुवीर वहीं बैठा रहा। तस्वीर को बार-बार देखता। पत्र पढ़ता। आँखों से आँसू गिरते, पर होंठों पर हल्की मुस्कान भी आ जाती। जैसे कोई पुराना गीत कानों में गूँज रहा हो।


शाम ढल रही थी। बाहर वर्षा और तेज़ हो गई थी। बिजली की कड़क आकाश को फाड़ देती और बरसात की बूंदें और भी जोर से गिरने लगतीं। विद्यालय का सन्नाटा गहरा हो गया। रघुवीर उसी सन्नाटे में डूब गया।


रात गहरी हो चली। हवा ठंडी होती गई। तस्वीर उसके सामने रखी थी। उसे लगा—युवती की आँखें अब भी वही प्रश्न पूछ रही हैं—“तुम क्यों डरे?” और रघुवीर के पास अब भी कोई उत्तर नहीं था।


सुबह होते ही उसने निर्णय लिया। वह डिब्बा और पत्र लेकर विद्यालय की सबसे ऊँची खिड़की पर पहुँचा। हवा में नमी थी, आसमान बादलों से भरा था। उसने एक-एक पत्र उठाया और खिड़की से बाहर छोड़ दिया। वे उड़ते हुए नीचे गिरने लगे, बारिश की धाराओं में भीगते हुए गलियों में खो गए।


अंत में उसने तस्वीर उठाई। कुछ पल उसे देखा। चेहरा मानो जीवित था। फिर उसने तस्वीर भी छोड़ दी। वह हवा में काँपी, फिर बारिश के साथ बह गई।


रघुवीर देर तक देखता रहा। तस्वीर धुंध में खो गई। उसके भीतर अचानक हलकापन भर गया। जैसे वर्षों का बोझ उतर गया हो। न खुशी थी, न दुख—केवल शांति।


उसने समझ लिया था—स्मृति से भागना संभव नहीं। भूलना और याद करना दोनों मनुष्य की नियति हैं। पर उन्हें स्वीकार करना ही मुक्ति है।


विद्यालय की दीवारें अब भी वैसी ही थीं। छतें अब भी ऊँची थीं। वर्षा अब भी बरस रही थी। शहर अब भी प्राचीन और पवित्र लग रहा था। फर्क बस इतना था कि रघुवीर की दृष्टि बदल गई थी। अब उसे ऊँचाई देखने के लिए गर्दन उठाने की आवश्यकता नहीं थी। उसकी दृष्टि भीतर से ही ऊँची हो गई थी।


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